Friday 26 July 2013


नीन्द 

आज मेरी नीन्द भी मेरे साथ जगी है बिस्तर पर.......  
कूलर की सरसराहट से कानों को ढक के घूर रही है मुझे।।।।।
दिल्ली में हूँ, न कमरे में खिड़की है न उससे झाँकता महताब कि कुछ नज़्म ही कह दूँ उस अकेली एकटक नज़र को….

चादर का एक कोना हमारे बीच लुका-छिप्पी खेल रहा है… 
नीन्द ज़िद कर रही है लोरी सुनाने को, मुझे सपने और देखने हैं जग के…

कहती है चलो यादों के दरख़्ते दरारों से पुराने मुहल्ले घूम आते हैं
मुहल्ले तो यारों से गुलज़ार थे, सब ने नया ठिकाना पाया है अब….

रुआंसा होकर फिर कहती है नीन्द मुझसे 
तो चलो किसी सफ़ेद काग़ज़ पे काली स्याही से लिखी दास्तानों के बीच चलें….
मंटो के कहानियों में सोयी है अभी लाहौर पहुँचकर नीन्द मेरी…

बस ये पन्ना ना ख़ाक कर दे वतनपरस्त कोई...

Saturday 29 December 2012

बदलाव


सरकार बदलने में समय लगेगा सत्ता बदलने में समय लगेगा कानून बदलने में समय लगता है।। लेकिन तब तक हम तो बदल सकते हैं हम मतलब मैं आप और हम से जुड़ा ये समाज।
बदलना होगा उस सोच को जो रात में देर से लौटने  वाली हर महिला का, अपने हिसाब के कपड़े पहनने वाली  हर महिला का, बाज़ार में अपने दोस्त का हाथ थाम चलने वाली हर महिला का चरित्र विश्लेषण चंद मिनटों में कर डालती है। बदलना होगा उस नज़र को जो राह चलती हर महिला का हर दिन नज़रों से बलात्कार करने के लिए काफी है। पता नहीं गलती कहाँ है संस्कार में या शिक्षा में।अगर संस्कार में तो हम आजतक किस संस्कृति की दुहाई देकर अपने भारतवर्ष का सामान करते आये हैं और अगर शिक्षा का  है तो क्यूँ शिक्षित तबके के मर्दों की नज़रों में भी वही हैवानियत छलकती है?
ये बात ऐसे ही नहीं कह रहा हूँ हर रोज़ देखता हूँ सडको पर बाज़ार में आज भी देखा सड़क पे चल रही एक अकेली लड़की को मेरे पिता के उम्र के भद्रजन मेरे भैय्या के उम्र के युवा मेरे उम्र के लड़के और मुझसे छोटे भी सभी एक टक घूरे जा राहे थे फिर वो खुद को बहुत पढ़ा लिखा समझने वाला मैगज़ीन कॉर्नर पर प्रतियोगिता दर्पण खरीद रहा युवा हो या कचड़ा चुनने वाला ग़रीब। 
उस पुरुषवादी रवैय्ये को भी बदलना होगा जो महिला को बस विलास की वस्तु समझता है - गाने से लेकर सीमेंट के प्रचार तक जिस तरह महिलाओं को दर्शाया जाता है उस पर भी विचार ज़रूरी  है।
सभी के अपने सुझाव हैं अपने राय हैं लेकिन सबसे ज़रूरी है हम अपने आने वाले पीढ़ी को ऐसा समाज दें जिसमे महिलाओं की इज्ज़त  कैसे की जाती है इसकी तालीम सबसे पहले दी जाए, ना कि उन्हें घूरने की

बहुत कुछ लिखना है पता नहीं कैसे लिखूं ... थोड़ा तो बदला हूँ मैं थोड़ा आप भी बदलिए बस।।।

Wednesday 17 October 2012

दुर्गा पूजा।

पहली बार दुर्गा पूजा में घर से बाहर हूँ, बड़ा अजीब लग रहा है। सुबह सुबह नींद खुलता था धूप और हुमाद के महक से और दिन भर दुर्गा सप्तशती का पाठ चालू रहता था घर में साथ में शंख, घंटी और बगल वाला पंडाल से लखमीर सिंह लक्खा का गाना का आवाज़, पुरा माहौल भक्ति में डूब जाता। पूरा दुर्गा पूजा कम से कम माँ बिना नहाए नहीं खाने देती थी और न घर में प्याज लहसुन बनता था। शाम होते ही दोस्त लोग के साथ राउंड पर निकलना होता था पूरा पंडाल का निरिक्षण करने। सप्तमी से तो बस पूछिये मत, दोस्त लोग का पूरा हुजूम निकलता था साथ में। गर्दनीबाग से शुरू करके 10 नंबर, पंचमंदिर, कालिबारी होते हुए डाकबंगला जहां आज तक 5 मिनट इत्मीनान से माता का मूर्ति नहीं देखे होंगे समझिये राजीव चौक का सब लाइन एक में मिल गया हो, 2 मिनट  में ठेल ठेल के सब ई पार से ऊ पार दे आता था। फिर मौर्या लोक में बैठ कर चाट और प्याज वाला पाँव भाजी और कोल्ड ड्रिंक। फिर एक दिन रुख होता था बोरिंग रोड का, चौराहा से पैदल पैदल ऐ.एन कॉलेज तक।नवमी को सुबह में एन आई टी तरफ और रात में कंकरबाग भ्रमण। रास्ता में रुक के कभी रिंग फ़साना त कभी बन्दुक से बलून फोड़ना चलते चलते पूरा पटना नापा जाता था लेकिन उत्साह एक रत्ती कम नहीं होता था।एक्को पंडाल देखना बाकी रह गया तो समझिये अगला दिन उसी पंडाल का सब जान बुझ के बराई करेगा और बोलेगा की 'मेने पंडालवा तो तुम नहीं घूमा'। एक दिन परिवार के साथ घूमना जरूर होता था और साल भर उस दिन का इन्तज़ार रहता था क्यूंकि मिडिल क्लास में ऐसा दिन पर्व त्यौहार में ही आता है। फिर दशमी के दिन गाँधी मैदान में लंका दहन, बिना हुडदंग के तो हो ही नहीं सकता है।
डाकबंगला चौराहा में माता की प्रतिमा 
जब छोटे थे तब याद है की गांव जाना होता था दुर्गा पूजा में और फिर छठ तक वहीँ रहना होता था। गांव का  भी बहुत अनोखा होता था। ढोल और पिपही का आवाज़ पूरा टोल में गूंजते  रहता था, नानी के साथ दोपहर में देवीस्थान जाना और वहाँ फरही, कचरी खरीद के पेपर पर रख के खाना। अष्टमी को बड़ा पर्दा टांग  के रात भर  फिल्म दिखाया जाता था, यही एक रात होता था जब जाती के नाम पर अलग अलग नहीं बैठाया जाता था जो  पाहिले सिट लूट ले ऊ आगे बैठेगा बहुत फिल्म देखे हैं ऐसे उंघते उंघते लेकिन सोते नहीं थे नहीं तो बेइज्जती हो जाता था जैसे बाराती में कम खाने पर होता है मेरे गाँव में। सुनील दत्त और राजकुमार जी वाला हमराज अभी तक याद है बहुत पसंद आया था और उसका गाना 'नीले गगन के तले.....' दुबारा बजवाया गया था फिल्म को रोक के। रामलीला का भी जबरदस्त क्रेज था देखने जाना ही जाना था चाहे बगल वाला गांव मव ही क्यूँ न लगे। बाद में फिल्म लगना बंद हो गया और आर्केस्ट्रा लगा।अष्टमी और नवमी में से एक दिन बलिप्रदान होता था एक्के तलवार में खस्सी(छोटा बकरी) दू टुकरा, मजाल है कोई उसको गाँव भर में मांस बोल देता भगवती का प्रसाद होता है वो। फिर दशमी को सुबह सुबह उठ के कान पर जयंती रखना है और शाम को  गाँव की दुर्गा जी को एक ही तालाब में भसाया जाता था। मूर्ति भंसने के बाद मेला घूमना होता था और उस दिन तो  खाना ही खाना था। हमको पटना का मेला ज्यादा अच्छा लगता था गांव से, पूरा शहर का गजब माहौल रहता था और घुमने का पूरा आजादी रहता था शायद इसीलिए।ये सब जब लिख रहा हूँ तो सभी चीज़ें आँखों के सामने से दुबारा गुजरी और पता नहीं क्यूँ आँखों को नम कर गयी , घूमते घूमते दोस्त लोग के साथ हंसी मज़ाक नया नया कपड़ा दिखाना वाकई अद्भुत होता है बचपन। सब जगह याद है सब दोस्त याद है, इस बार भी सब आ रहा है हम नहीं जा रहें सच में अजीब लग रहा है। यहाँ कोई चहल पहल नहीं है।
आप सब को दुर्गा पूजा बहुत मुबारक हो। 

Saturday 2 June 2012

ऊपर से

हमारे मोहल्ले में बिजली की बड़ी दिक्कत थी.  और गर्मियों में तो बस पूछिये ही मत . हफ़्ते में 1 बार तो टोली बना के गर्दनिबाग  बिजली ऑफिस  जाना हो ही जाता था हम पड़ोसियों  का.हमारे पूछने पे  कि  क्या गड़बड़ी है, एक ही जवाब  मिलता था की ऊपर से ही खराब है. हमलोग आज तक उस ऊपर तक नहीं पहुंच पाए की हमारी बाते सुनी जा सके. 
जन वितरण प्रणाली की दुकानों में भी मैंने अक्सर यह गौर किया है की अगर कोई यह पूछे की इस बार गेहूं या चावल कम क्यूँ दिया जा रहा है तो जवाब आता है की ऊपर से ही कम आया है.  अगर किसी भी उत्पाद के प्रारूप में बदलाव आ जाता था और पूछो की ऐसा क्यूँ है तब भी यही सुनने को मिलता था की अब ऊपर से ही ऐसा आने लगा है.
लेकिन सबसे ज्यादा ये जो सुनने को मिलता था वो था खाद्य सामग्री के बढे हुए दामो में भैय्या चावल का दाम क्यूँ बढ़ गया इतना- क्या करियेगा उपरसे बढ़ गया है..
भैय्या सब्ज़ी इतनी महंगी- ऊपर से ही यही रेट मिल रहा है हमलोग क्या करें?????
दरअसल ये जो ऊपर से ही वाला टेकनिक है- हमारे देश में माध्यम वर्गीय ग्राहकों और उपभोक्ताओ को अँधेरे में रखने के लिए ज़बरदस्त रूप से इस्तेमाल हुआ है..
और हम भी इस जवाब को ऐसा मान चुके हैं की अगर कही से ये जवाब सुनने को मिले तो, हम बाध्य हो जाते मानने के लिए और सम्बंधित अधिकारी या संकाय भी सवालों के दायरे से परे हो जाता है.

खैर हाल के दिनों में हमारी बढती साक्षरता और जागरूकता के कारण इस टेकनिक का इस्तेमाल कम ज़रूर हुआ है लेकिन प्रभावी रूप से अभी अपने उत्पत्ति के स्तिथि में ही है.. बचपन में लगता था की 'ऊपर से' कोई इंसान है, जो बोल दिया फ़ाइनल  समझिये. धीरे धीरे पता चला की कितनी बार ठगे जा चुके हैं. 

आज देश में तेल की कीमते आस्मां छू रही हैं हम आप कुछ नहीं कर सकते हैं, क्या करियेगा ऊपर से ही बढ़ गया है.. दूध का दाम भी कुछ सालो में बहुत तेजी से बढ़ाया गया है ऊपर से. 
जब कभी ऊपर से आर्डर आता है तो नीचे तक के बाबू के पैर हाथ फूल जाते है, बात भी सही है उपर से जो आर्डर आया है.. किसी केस में जब ऊपर का बल परता है तो देखिएगा की असंख्य केस में से आपका मामला सबसे पहले कैसे हल हो जाता है..

हाल में इस शब्द से पाला तब परा जब इन्टरनेट ठीक करने के लिए जिसे कंपनी वालों ने घर पे भेजा था उसने भी अपनी लाचारी ये कह के दिखा दी की ऊपर से ही खराब है.. और फिर से मै निशब्द खड़ा था..

सब ऊपर का खेल है अपने यहाँ. मै तो आज तक नहीं जान पाया हूँ की ये ऊपर क्या है? 
 मालूम  नहीं कब देखने को मिलेगा ये 'ऊपर' जहां से तय होता है सब कुछ...
 फिर भी बहुत लोगों को कहते हुए सुनता हूँ 'मेरी पहुँच ऊपर तक है'.....

Friday 6 April 2012

राजा नीति

समय कि कमी के कारण चांदनी चौक के लिए ऑटो ही ले लिया वरना मेट्रो एक 'इकोनोमिकल  आप्शन' था.ऑटो वाले भैय्या को छेड़ने कि बड़ी गन्दी आदत बहुत पहले एक सिनिअर से लग गयी थी सो इस बार भी गंतव्य तक  पहुचने से पहले मैंने व्याप्त शांति को खंडित करने के लिए इसी का सहारा लिया.

                            

हमारी बात जो एक ऑटो खरीदने में लगने वाली लागत और उसमे होने वाली दलाली  से शुरू हुई थी वो भारत के तमाम राजनितिक पहलुओ का जायज़ा लेने के बाद ही ख़त्म हुई.

Thursday 16 February 2012

धक्का- थोड़ा बचा के!!!!!

मयूर विहार स्थित डेलीकेसी से अपने लिए वेज और बाकी रूममेट्स के लिए नॉन-वेज खाना ले के कोल्ड ड्रिंक लेने के लिए जा हिं रहा था की पीछे से आवाज़ आई धड़ाम!!! तुरंत भीड़ भी जुट गयी. मेरे जर्नलिसटिया दिमाग या यूँ कहिये की रुझान ने तुरंत कहा छोड़ो कोल्ड ड्रिंक को- देखो भीड़ को. आनन फानन में मै भी पहुँच गया मौके पे. एक ही बाइक पे सवार तीन नवयुवको ने एक कार को धक्का मार दिया था और खुद भी गिर पड़े!!!

उनमे से दो तो भागने में सफल रहा पर तीसर धरा गया, संभवतः उसीकी बाइक थी. अब चूँकि बोतले दोनों तरफ खुली थी गाड़ी चलने से पहले तो टेंशन होना लाज़मी था! 

अब बाइक और कार में ज्यादा रसूक वाला कौन है ये तय करना मुश्किल नहीं है इसीलिए ये अंदाज़ा लगाना भी बहुत मुश्किल नहीं होना चाहिए की कौन पीट रहा होगा और कौन पिट रहा होगा. पांच छः घुस्से और संभवतः उतने ही थप्पड़ खाने के बाद आखिरी बाइक सवार भी भागने में कामयाब रहा. 


जिन कार वाले सज्जन के अभिमान पे स्क्रैच आया था(अभिमान पे इसलिए क्यूंकि उनकी गाड़ी को ज्यादा नुक्सान नहीं हुआ था)  उनके मित्र के पास एक चाकू भी था जिससे उन्होंने बाइक के टायर फाड़ डाले. अब धीरे धीरे भीड़ को भी मज़ा आने लगा था. अभी अभी भीड़ का हिस्सा बने एक नवयुवक ने अपनी स्कूटी बगल में खड़ी  करी और मौके के नज़ाकत को बखूबी समझते हुए- पहले से विकृत हो चुकी बाइक को अपनी पूरी क्षमता से उठाते हुए बाकी काम गुरुत्वाकर्षण पे छोड़ दिया.


चूँकि मेरे पास बाइक नहीं है वरना तकनिकी रूप से सटीकतापूर्वक बता पाता कहाँ कहाँ के शीशे टूटे और रिपेयर कराने में कितना खर्च आएगा लेकिन हाँ जहाँ जहाँ शीशे होते हैं वहां मोटर मिस्तिरी अब अपना खर्चा निकाल लेगा.


उधर चार कदम के दूरी पे दो युवक अपने तीसरे मित्र को समझा रहे हैं की तू क्यूँ बीच में पड़ रहा है? और जो सफाई उनका मित्र दे रहा था की 'यार सभी मिल के उस बन्दे को मार रहे थे' उसे वो दिल्ली की रित की दुहाई देकर टाल गए और उसे ठण्ड रखने की सलाह देते हुए वहां से ले गए. बात ये हुई थी की उनके मित्र की इंसानियत थोड़ी जग गयी थी और वो उस बाईक सवार को पिटता नहीं देख पा रहे थे इसलिए कार वाले सज्जन को उसे छोड़ देने की सलाह दे डाली,नतीजतन उन्हें काफी ज़िल्लत सहनी पड़ी थी.


वहीँ सड़क के उस पार एक रेस्टुरेंट भी था  जहन के मालिक भी आ पहुंचे और बात को सँभालने की कोशिश करने लगे जब उन्होंने बिच बचाव करने की कोशिश करी तो कार वाले सज्जन ने कहा 'अंकल आप नहीं जानते अभी इसको मरवा सकते हैं, कुछ ही दिनों पहले तो मेट्रो स्टेशन के बाहर गोली चलवाई थी'.
उधर बीच में से फिर किसी ने मध्यस्तता करने की कोशिश करी तो उसे इस सवाल ने दुबारा कुछ कहने से रोक दिया की- 'भाई तू है कौन'?


कार वाले सज्जन के एक मित्र ने सलाह दे डाला की पुलीस को बुलवा लो!! लेकिन रेस्टुरेंट वाले चाचा और अपने मित्रो के आपसी सलाह के बाद सज्जन ने भी बात को ख़त्म करने में ही विद्वता समझी.
इतने में पहले पिट चुके बाइक वाले की री-एंट्री हुई और एक पल में सारी विद्वता जाती रही और फिर से दन-दन. इस बार बेचारा अपनी बाइक को छुरवाने आया था. दोनों हाथ जोड़े हुए जब वो क्षमा याचना कर रहा था तो नेताओ की याद आ गयी जब वो वोट-याचना पे आते हैं और हाथ जोड़े खड़े होते हैं की पता नहीं वोटर कब बिदक जाए......


खैर दम भर पीटने के बाद और बिच- बचाव के बाद बाईक वाले को कार वाले सज्जनों ने मुक्ति दे दी. भीड़ भी छटने लगी. स्कूटी वाले भैय्या भी पुरे ताकत से एक्सेलेरेटर को ऐठ के लहरिया कट मरते हुए हवा से बाते करने लगे.


किसी को खाने वक़्त होने वाले चर्चा के लिए रोचक विषय मिला तो फांकिबाज क्षात्रो  को अगले दिन दोस्तों में किस्सा सुनाने का मसाला मिला, मेरे जैसे कुछ को लिखने को कुछ मिल गया.


लेकिन इस व्यंग्य के साथ शायद सोचने के लिए भी बहुत कुछ रह गया. जैसे-


जो गोली चला सकता है वही पुलीस को इतनी जल्दी बुलाने में सक्षम क्यों है?


स्कूटी वाले भैय्या ने जिस अपराध के लिए बाइक उठा के पटका उसके बाद क्या वो लहरियाकट मारने के लिए एलिजीबल हैं?


उन तीन मित्रो के बीच में सही कौन था और दिल्ली कितना दोषी है व्यक्तिगत स्वभाव के लिए?


अंत में बाकी दो मित्र भी आये और कांच को समेटते हुए आगे किसी भी घटना में साथ निभाने का वादा करते हुए चलते बने.


कार वाले सज्जन औए बाइक वाले के बिच सही कौन गलत कौन के चुनाव से मैंने अपने आपको मुक्त रखना ही बेहतर समझा है.


अब मुझे कोई इस बात का दोष न दे की मैंने कुछ किया क्यूँ नहीं बीच बचाव करने के लिए, क्यूंकि एक बड़े संपादक की लाइन मेरे मन में घर कर गयी है की अगर सब  कुछ पत्रकार ही करेगा तो खबर कौन देगा?